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राजमाता ने उखाड़ फेंका था निरंकुश शासन

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राजमाता विजयाराजे सिंधिया की 104वीं जयंती पर विशेष
ग्वालियर राज्य की महारानी के रूप में अभिषित्त और महिमा मंडित हुईं विजयाराजे सिंधिया़…..कौन जानता था कि राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित वह नवयौवना एक दिन अपने कीर्तिधवल कर्तव्य के बल पर, जननी के रूप में जन-जन के हृदय सिंहासन पर विराजमान होने में सफल होंगी। त्याग, तपस्या और परोपकार की साक्षात प्रतिमूर्ति कही जाने वाली राजमाता का राजनीति में पदार्पण, जनता पर हुए अन्याय के विरुद्ध उनका आक्रोश, निरंकुश शासन को उखाड़ फेंकने में उनकी भूमिका, मध्य प्रदेश में प्रथम संविधा सरकार का गठन, जिसने समूचे देश में राजनीति को एक नई दिशा दी, तीव्र गति से घूमते कालखंड में राजमाता के महत्वपूर्ण योगदान को इतिहास के पृष्ठों में प्रमुखता से अंकित कर चुके हैं। ध्येय देवता के प्रति अविचल निष्ठा, कर्तव्य के पथ पर अविराम यात्रा, अपने विश्वासों के लिए राजमहल के सुखोपभोग को तिलांजलि देकर कारागर की यातना को सहर्ष स्वीकार करने की उनकी सिद्धता, समाज हित के लिए परिवार के मोह और ममता से मुंह मोड़ लेने का उनका मनोधैर्य, नयी पीढ़ी के लिए प्रेरणादायक ही नहीं भावी संतति के लिए अनुकरणीय भी सिद्ध होगा। भारत के सार्वजनिक जीवन में राजमाता का स्थान अतुलनीय है। उनकी 104वीं जयंती पर खास रिपोर्ट।

  • डॉ. केशव पाण्डेय
    आज 12 अक्टूबर को राजमाता विजयाराजे सिंधिया की देशभर में 104वीं जयंती मनाई जा रही है। पूरा देश उन्हें याद कर रहा है। ग्वालियर राजघराने की महारानी एवं राजनीति की राजमाता विजयराजे सिंधिया की आत्मा की ज्योति परम तत्व में विलीन हो गई है लेकिन 82 वर्ष के सुदीर्घ जीवन में उन्होंने अपने जीवनपथ पर जो पद चिंह छोड़े हैं वे अमिट हैं। असंख्य जनमानस के मन मस्तिष्क पर अपनी जो छाप उन्होंने छोड़ी है वे अविस्मरणीय हैं। इसलिए यह विश्वास पूर्वक कहा जा सकता है कि राजमाता जी अमर हैं।
    आज जब हम उनका पुण्य स्मरण कर रहे हैं तब बेशक भौतिक रूप से सशरीर वे हमारे बीच में नहीं हैं लेकिन उनके सुकृत और विचारों की सुरभि सदैव जीवंत बनी रहेगी। उनके अनुकरणीय कृतित्व और व्यक्तित्व को हम याद कर रहे हैं, जो सदैव समाज व राष्ट्र के लिए जीवंत प्रेरणा रहीं हैं।
    त्याग, तपस्या और परोपकार की साकार प्रतिमूर्ति कही जाने वाली राजमाता पिछली शताब्दी में भारत को दिशा देने वाले कुछ एक व्यक्तित्वों में शामिल थीं। राजमाता केवल वात्सल्य मूर्ति हीं नहीं थीं वे एक प्रेरणात्मक एवं निर्णायक नेता थीं और एक कुशल प्रशासक भी थीं।
    स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर आजादी के इतने दशकों तक भारतीय राजनीति के हर अहम पड़ाव की वो साक्षी रहीं। आजादी के पहले विदेशी वस़़्त्रों की होली जलाने से लेकर आपातकाल और राम मंदिर आंदोलन तक राजमाता के अनुभवों का व्यापक विस्तार रहा है।
    राजमाता का समग्र जीवन त्याग, साधना एवं आत्मविश्वास का प्रमाण है। कोई भी साधारण से साधारण व्यक्ति जिनके भीतर योग्यता है, प्रतिभा है, देश सेवा की भावना है। वो इस लोकतंत्र में सत्ता को भी सेवा का माध्यम बना सकता है। आप कल्पना कीजिए कि सत्ता थी, सपंति थी, सामर्थ था लेकिन उन सबसे बढ़कर जो राजमाता की अमानत थी वो भी संस्कार सेवा और स्नेह की सरिता।
    ये सोच, ये आदर्श उनके जीवन के हर कदम पर हम देख सकते हैं। इतने बड़े राजघराने के मुखिया के रूप में उनके पास हजारों कर्मचारी थे। भव्य महल थे। सभी सुविधाएं थीं। लेकिन उन्होंने सामान्य मानवी के साथ, गॉव-गरीब के साथ जुड़कर जीवन जिया, उनके लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।
    राजमहल में रहने वाली महारानी ने कांग्रेस के रास्ते राजनीति का सफर शुरू किया और 1957 में पहली बार उच्च सदन में पहुंची। स्वतंत्र पार्टी से होते हुए उन्होंने भारतीय जनता पार्टी में अपनी राजनीति को विराम दिया। वे भाजपा की संस्थापकों में से एक रहीं। जनसंघ की अखिल भारतीय नेता के रूप में उनका विकास हुआ।
    जनहित के लिए राजकाज छोड़ राजनीति को जीवन का अंग बनाने वाली राजमाता ने 60-70 के दशक में जब पूरे देश में कांग्रेस का बोलबाला था उस दौरान ऐसा मास्टर स्ट्रोक खेला था कि निरंकुश सरकार को उखाड़ फेंक कांग्रेस को सत्ता के परिदृश्य से क्लीन बोल्ड कर दिया। इसके बाद पहली बार प्रदेश में संविदा सरकार के गठन का रास्ता बना था। प्रदेश का यह सियासी उलटफरे पूरे देश की राजनीति में नजीर बना। उस दौरान स्वयं राजमाता ने मुख्यमंत्री का पद ठुकरा का सत्ता का लात मार दी और गोविंद नारायण सिंह की अगुवाई में सरकार का गठन हुआ था। उन्हें कभी सत्ता की लालसा नहीं रही।
    उन्होंने जीवन काल में शिक्षा एवं समाज सेवा से जुड़ी अनेक संस्थानों की स्थापना कराई। एक विशाल राज्य की महारानी और राजमाता के तौर पर प्रभु ने उन्हें अथाह ऐश्वर्य के साथ सुख और वैभव दिया। लेकिन नीयती को कुछ और ही मंजूर था। उन्होंने अपने निजी जीवन में अनेक आघातों को झेला। राजामाता की आत्मकथा “राजपथ से लेकर लोकपथ पर“, जिसे हिंदी की सुप्रसिद्ध मृदुला सिंह ने लिपिबद्ध किया है। जिसमें बताया कि कैसे सामान्य परिवार में जन्मी कन्या राजरानी बनी और फिर राजपथ पर चलते-चलते कैसे लोकपथ पर जा पहुंची और वहां से कैसे लोकमाता और जनमाता बन गईं।
    पुस्तक में एक महत्वपूर्ण बात वर्णित है वह यह है कि राजमाता ने कहा था- “एक दिन ये शरीर यहीं रह जाएगा, आत्मा जहां से आई है वहीं चली जाएगी। अपनी इन स्मृतियों को मैं उनके लिए छोड़ जाऊंगी, जिनसे मेरा सरोकार राह है, जिनकी मैं सरोकार रही हूॅ।“
    आज राजमात जहां भी हैं, हमें देख रही हैं, हमें अपना आशीर्वाद दे रही हैं। हम सभी- जिनका उनसे सरोकार रहा है, जिनकी वो सरोकार रही हैं। राजमाता सदैव यही कहती थीं कि वे एक पुत्र की नहीं, मैं तो सहस़़्त्रों पुत्रों की मॉ हूं। उनके प्रेम में आकंठ डूबी रहती हूं। हम सब उनके पुत्र-पुत्रियां ही हैं, उनका परिवार ही हैं।
    यही वजह है कि राजमहलों में रहने के बावजूद कभी उनके मन में अहंकार का भाव नहीं दिखा। वे आमजन से सहजता, सरलता और आत्मीयता के साथ मिलती थीं। उनकी अभिव्यक्ति इंसान के दिल को जीतने वाली होती थी। उनका मातृत्व सुलभ व्यवहार उन्हें श्रद्धा और सम्मान का हकदार बनाता है। वे राजनीति के परिदृश्य में सार्वजनिक जीवन की सर्वाधिक समाहत महिला थीं। उनके समान आसमान सी ऊॅचाई, समुद्र सी गहराई और उनकी विशालता किसी एक इंसान में उपलब्ध हो पाना मौजूदा परिवेश में संभव नहीं है। ऐसी राजमाता का हमसे दूर जाना हमारे लिए दुःखद है।
    यदि हमने उन्हें आदर्श मानकर उनके सद्गुणों को अपने जीवन में आत्मसात कर लिया तो सही मायने में उनके प्रति हमारी सच्ची आदरांजलि होगी।
    मौजूदा परिवेश में जरूरत है कि राजमाता की जीवन या़त्रा को, उनके जीवन संदेश को आज की पीढ़ी को जानना होगा। उनसे प्रेरणा लेनी होगी। उनसे सीखना होगा। इसलिए जरूरी हो जाता है कि उनके बारे में उनके अनुभवों के बारे में बार-बार बात करना आवश्यक है।
    बेशक आज सत्ता और संगठन में पार्टी के अनेक पदाधिकारी शीर्ष पर पहुंच गए हों लेकिन राजमाता का स्मरण करना नहीं भूलते हैं। यही कारण है कि पिछले साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने लोकप्रिय कार्यक्रम “मन की बात“ में विस्तार पूर्वक राजमाता के कृतित्व और उनके स्नेह पर चर्चा की थी। ऐसी राजमाता का हमसे हमेशा के लिए दूर होना हमारे लिए दुःखद है। लेकिन हम मौजूदा परिवेश में उनके आदर्शों और सदगुणों को जीवन में आत्मसाल कर लेते हैं तो सही मायने में उनके प्रति हमारी सच्ची आदरांजलि होगी। देवी स्वरूपा राजमाता विजयाराजे को जयंती पर मेरा शत् -शत् नमन।

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