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तप, ज्ञान, यज्ञ और दान, परशुराम हैं महान

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“धन, संपत्ति और वैभव की देवी माता लक्ष्मी, जगत के पालनहार भगवान विष्णु और कुबेर देव की आराधाना के लिए समर्पित अक्षय तृतीया इस बार सुखद संयोग से सजी हुई है। अक्षय तृतीया के दिन ही विष्णु के अवतार भगवान परशुराम की जयंती का शुभ योग भी है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अक्षय तृतीया से ही सतयुग और त्रेता युग का आरंभ हुआ है। भगवान विष्णु ने नर नारायण का अवतार लिया था। इसे युगादि तिथि भी कहा जाता है। इस दिन विवाह, गृहप्रवेश और खरीदारी को अत्यंत शुभ माना जाता है। दान-पुण्य और खरीदारी से अक्षय फल की प्राप्ति होती है। आइये जानते हैं, अक्षय तृतीया का हिंदू धर्म में महत्व और भगवान परशुराम के पराक्रम का प्रभाव।

डॉ. केशव पाण्डेय
अक्षय तृतीया एवं परशुराम जंयती पर विशेष
10 मई शुक्रवार को अक्षय तृतीया पर्व है। हर साल वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को देश भर में अक्षया तृतीया मनाते हैं। सनातन धर्म में इसे बेहद शुभ मानकर दीपावली की तरह ही उत्साह के साथ मनाया जाता है। जो इस तिथि पर देवी लक्ष्मी की पूजा कर, दान-पुण्य और खरीदारी आदि कार्य करते हैं उन्हें शुभ फलों की प्राप्ति होती है। इस वर्ष अक्षय तृतीया पर 100 साल बाद चंद्रमा और देवगुरु बृहस्पति की युति होने से गजकेसरी योग का निर्माण होगा। ज्योतिष शास्त्र में गजकेसरी योग को शुभ योग माना गया है। साथ ही मालव्य योग, धन योग, रवियोग, उत्तम योग और शश योग को मिलाकर कुल पांच महा शुभ योगों का संयोग भी होगा। अक्षय तृतीया स्वयंसिद्ध मुहूर्त होने के कारण इस तिथि पर हर तरह के शुभ कार्य बिना मुहूर्त के संपन्न होंगे।
मान्यता है कि अक्षय तृतीया पर मां लक्ष्मी की पूजा करने और सोना-चांदी खरीदने से सौभाग्य और सुख-शांति की प्राप्ति होती है। अक्षय तृतीया पर गृह प्रवेश, विवाह, विद्यारंभ, प्रतिष्ठान का शुभारंभ, नया कारोबार, जमीन और वाहन की खरीदारी करना शुभ होता है। गंगा स्नान और दान करने का विशेष महत्व होने से कार्य में सफलता मिलती है और धन में वृद्धि होती है।
अक्षय तृतीया का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि त्रेता युग में मां गंगा और देवी अन्नपूर्णा का अवतरण हुआ था। महर्षि वेदव्यास ने महाभारत महाकाव्य की रचना की थी। अक्षय तृतीया पर ही बद्रीनाथ और केदारनाथ के पट खुलते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर को अक्षय पात्र दिया था, जिसमें कभी भी भोजन समाप्त नहीं होता था। अक्षय तृतीया के दिन घर में बेटे का जन्म होने पर शुभ दिन पर पूजी जाने वाली मां लक्ष्मी के पति भगवान विष्णु का नाम दे सकते हैं।

दान का महत्व : सनातन परंपरा के वेदों और उपनिषदों में अक्षय तृतीया पर दान के महत्व का उल्लेख किया गया है। धर्म ग्रंथों के मुताबिक कुछ दान का फल इसी जन्म में मिल जाता है तो कुछ का फल अगले जन्म में मिलता है। गरुड़ पुराण में दान का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि दान करने से लंबी उम्र मिलती है।
दान के महत्व को बताते हुए मनुस्मृति में कहा गया है-
तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते। द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे ॥
अर्थात्- सतयुग में तप, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ और कलियुग में दान मनुष्य के कल्याण का साधन है। इस दिन दान करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।
अक्षय तृतीया का है वैज्ञानिक आधार भी है। इस पर्व के मनाने से सुख, समृद्धि और आरोग्यता मिलती है। इस दिन स्वास्थ्य लाभ, समृद्धि एवं संकटों से मुक्ति के लिए अनेक उपायों का उल्लेख है। पवित्र तिथि से फ्रिज के ठण्डे पानी की अपेक्षा प्रतिदिन मिट्टी के घड़े में भरा जल पीने से शरीर स्वस्थ रहता है। मिट्टी के संपर्क से जल में पृथ्वी तत्व की वृद्धि होती है, जल और पृथ्वी तत्व शरीर के लिए पोषक होते हैं, जो वैशाख मास में आरोग्य प्राप्ति के लिए सरलतम उपाय है।
अक्षय तृतीया के दिन विधि-विधान से महालक्ष्मी की मंत्रों के साथ उपासना की जाए तो धर में धन-धान्य में वृद्धि होती है। लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए 108 बार लक्ष्मी बीज मंत्र का जप करें।
लक्ष्मी बीज मंत्र : ॐ हीं श्रीं लक्ष्मीभयो नमः।
महालक्ष्मी मंत्र
ॐ श्रीं हीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद ॐ श्रीं हीं श्रीं महालक्ष्मयै नमः॥
पद्मानने पद्म पद्माक्ष्मी पद्म संभवे तन्मे भजसि पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम्
ॐ हीं श्री क्रीं क्लीं श्री लक्ष्मी मम गृहे धन पूरये, धन पूरये, चिंताएं दूरये-दूरये स्वाहाः
पूजा का मुहूर्त सुबह 5 बजकर 13 मिनट से 11 बजकर 43 मिनट तक रहेगा। वहीं, लाभ चौघड़िया मुहूर्त सुबह 06 बजकर 51 मिनट से सुबह 08 बजकर 28 मिनट तक रहेगा। इसके साथ ही अमृत चौघड़िया मुहूर्त सुबह 08 बजकर 28 मिनट से सुबह 10 बजकर 06 मिनट तक रहेगा। पुनः शुभ चौघड़िया मुहूर्त सुबह 11 बजकर 43 मिनट से दोपहर 01 बजकर 21 मिनट तक रहेगा।

पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने तीर चला कर गुजरात से लेकर केरला तक समुद्र को पिछे धकेल कर नई भूमि का निर्माण किया। इसी कारण कोंकण, गोवा और केरला मे भगवान परशुराम वंदनीय है। वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी सन्तानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता पिता की आज्ञा का पालन करते थे।

भगवान शिव ने दिया परशु अस्त्र हो गए परशुराम
अक्षय तृतीया के दिन ही 8 लाख 75 हजार 7 सौ साल पूर्व त्रेता युग के 19वें भाग में भगवान विष्णु के छठवें अवतार परशुराम माता रेणुका के गर्भ से अवतीर्ण हुए थे। उन्हें भगवान नारायण का आदेशावत्रा भी कहा जाता है। कई ग्रंथों में परशुराम को भगवान विष्णु और शिव का संयुक्त अवतार बताया गया है। शिव से उन्होंने संहार की शिक्षा प्राप्त की और भगवान विष्णु से उन्होंने पालन के गुण सीखे हैं।
भगवान परशुराम के बचपन का नाम रामभद्र था, यह नाम उनके माता-पिता ने रखा था। महर्षि कण्व ने जन्म के समय उनका नाम कोटिकर्ण रखा था। भगवान परशुराम का मूल नाम राम था, इसका उल्लेख महाभारत और विष्णु पुराण में मिलता है। लेकिन जब बाद में भगवान शिव द्वारा उन्हें परशु नामक अस्त्र प्रदान किया गया तो उनका नाम परशुराम हो गया। इनके अलावा भी उन्हेंं जमदग्नि कुलादित्य, रेणुकादभुत शक्तिकृत, मातृहत्यादिनिर्लेप, स्कन्दजित, विप्रराज्यप्रद, सर्वक्षत्रान्तकृत, वीरदर्पहा, कार्तावीर्यजित सप्तद्वीपावतीदाता, शिवार्चकयशप्रद, भीम, शिवाचार्य विश्वभुक, शिवखिलज्ञान कोष, भीष्माचार्य, अग्निदैवत, द्रोणाचार्य, गुरुविश्वजैत्रधन्वा, कृतान्तजित, अद्वितीय तपोमूर्ति, ब्रह्मचर्येक दक्षिण नाम से पुकारा जाता है।
महर्षिक़ ऋचिक और पिता जमदग्नि से वेद और धुनर्वेद की शिक्षा प्राप्त की थी। भगवान शंकर के सानिध्य में गणेशजी से उन्होंने परशु चलाने की विद्या सीखी। परशु शिव जी के उसी महातेज से निर्मित हुआ था जिससे सुदर्शन चक्र और देवराज इंद्र का वज्र बना था। भगवान परशुराम रुरु नामक मृग का चर्म धारण करते थे। इसके अतिरिक्त वो कंधे पर धनुष-बाण एवं हाथ में परशु लेकर चलते थे। परशुराम एक महान गुरु थे। इतिहास में भीष्म, द्रोण व कर्ण जैसे महायोद्धा उनके शिष्य रहे हैं।
पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने तीर चला कर गुजरात से लेकर केरला तक समुद्र को पिछे धकेल कर नई भूमि का निर्माण किया। इसी कारण कोंकण, गोवा और केरला मे भगवान परशुराम वंदनीय है। वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी सन्तानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता पिता की आज्ञा का पालन करते थे। यह वजह थी कि उन्होंने अपने पिता की आज्ञा मानकर अपनी माता का वध कर दिया था। लेकिन तीन वरदान मांग कर माता को पुर्नजीवित करवा दिया। परशुराम ने जो तीन वरदान मांगे थे उनमें- “मेरी माता और भाई जीवित हो जाएं और उन्हें मेरे द्वारा उनका वध किए जाने की याद न रहे। उनके सभी मानस पाप नष्ट हो जाएं। मैं लंबी आयु प्राप्त करूं और युद्ध में मेरा सामना करने वाला कोई न रहे।” महर्षि जमदग्नि ने उन्हें ये तीनों वरदान दिए।
अध्यात्म रामायण में भगवान परशुराम का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जब राक्षसों ने क्षत्रियों का रूप धारण कर इस पृथ्वी पर उत्पात मचाना प्रारंभ किया तब भगवान विष्णु ने परशुराम का अवतार लेकर दुष्ट राक्षसों को कई बार मारा और उनके भार से इस धरती को मुक्त किया।
कहा जाता है कि एक बार, हैहय वंश के राजा कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम के पिता महर्षि जमदग्नि के आश्रम पर आक्रमण किया और उनकी हत्या कर दी। उनकी मृत्यु से दुःखी हो रेणुका भी पति के साथ सती हो गईं। इस घटना ने परशुराम व्यथित हो गए। क्रोध और प्रतिशोध की आग में जलते हुए 21 बार पृथ्वी को क्षत्रियों से मुक्त करने का संकल्प लिया। उन्होंने अपने फरसे को धारण कर क्षत्रियों का वध करना शुरू कर दिया। क्षत्रियों के रक्त से उन्होंने पांच सरोवर भर दिए। हरियाणा के कुरुक्षेत्र में यह स्थान समन्तपंचक के नाम से प्रसिद्ध है।

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