उद्भव साहित्यिक मंच की आंचलिक काव्यगोष्ठी में गीत, गजल और कविता की बहार
ग्वालियर। होली की फुहारो में बासंती बहारों में… आओ रंगे तन-मन हम, आओ इस सतरंगी मौसम में। वरिष्ठ गीतकार घनश्याम भारती ने जब यह गीत प्रस्तुत किया तो लगा जैसे शब्दों के जरिए रंगों की बहार छा गई हो और हर तन-मन रंगों से सराबोर हो गया हो।
मौका था उद्भव साहित्यिक मंच के तत्वावधान में दीनदयाल नगर में संस्था के सचिव दीपक तोमर के निवास पर वरिष्ठ साहित्यकार अशोक स्नेही मेहगांव की अध्यक्षता एवं संस्था के अध्यक्ष डॉ. केशव पाण्डेय के विशेषातिथ्य में आयोजित की गई मासिक आंचलिक काव्य गोष्ठी का।

सर्व प्रथम जगदीश गुप्ता महामना ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत कर गोष्ठी का शुभारंभ किया।
अशोक स्नेही ने व्यंग के माध्यम से खूब गुदगुदाया। उन्होंने कहा कि
“जब भिखारी बिरादरी से हो, तो युग युग जियो।
हाथ से विल्स फेंको और सिगार पियो।“
वरिष्ठ नवगीतकार बृजेश चंद्र श्रीवास्तव ने गीत प्रस्तुत किया तो लोगों के मन में प्रेम के अंकुर पनपने लगे। उनके गीत के बोल थे…संबोधन की जगह किसी ने हरसिंगार लिखा, लगा कि जैसे अंतर्मन में पलता प्यार लिखा।“
इसी क्रम में वरिष्ठ गीतकार राजेश शर्मा ने भी मधुर गीत की प्रस्तुति “ जिस दिन रूप तुम्हारा देखा था निखार होते-होते, और बच गए हम भी उस दिन निर्विकार होते होते।“ से सभी को आनंदित कर दिया।
अब बारी थी जगदीश “महामना “ की, जिन्होंने
“रामराज स्थापना अब यही राष्ट्र आराधना। एक दूजे से विनय करें हम, करें यही बस प्रार्थना ।।“ काव्य पाठ कर कार्यक्रम को भव्यता प्रदान की।
डॉ. किंकर पाल सिंह जादौन ने अपने गीत से गोष्ठी की रंगत ही बदल दी। उन्होंने पिचकारी की धार और रंगों की बहार वाले त्योहार होली का सुखद अहसास कराते हुए कहा कि… खुल गए हैं आज सुधि के बंद दरवाजे, याद के उपहार लेकर आ गई होली।“
महौल को और खुशनुमा बनाते हुए
अनंग पाल सिंह भदौरिया “ अनंग “ने भी गीत प्रस्तुत किया, जिसे काफी सराहा गया।
गीत के बोल कुछ इस प्रकार थे…
“ सब कुछ है मेरे अंतर में, सारी दुनिया वाला। इसमें भी मेरा मन भी है मन के अंदर मतवाला ।“
गीतों की इसी श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए कवि रामचरण“ रुचिर “ ने कुछ इस अंदाज गीत प्रस्तुत किया, देखिए उनकी वानगी…
एक तरफ तो खाई है गहरी, दूजी और कुॅआं है।
जीवन के पथरीले पथ पर चलना कठिन हुआ है।“
युवा गीतकार भरत त्रिपाठी ने भी दिल को छू लेने वाली प्रशंसनीय प्रस्तुति दी। उन्होंने कहा कि “उमर गुजरी सफर गुजरा ,मगर मंजिल नहीं पाई। कहो, जाएं कहां
हमदम, इधर खाई उधर खाई।“
सुरेंद्र सिंह परिहार ने जब…..
“रे मन तू क्यों नहीं मानत है, क्षण क्षण बेकार में ही भटकत क्यों नहीं सुधरत है।“ यह गीत सुनाया तो पूरा सभागार करतल ध्वनियों से गूंजने लगा।
संचालन कर रहे सुरेंद्र पाल सिंह कुशवाहा ने अपनी प्रस्तुति देते हुए कहा,
“ बीतते अब जा रहे हैं शीत के दिन ,
आ गए मधुमास के संग प्रीत के दिन।
रचनाकार ओमप्रकाश रिछारिया ने भी अपनी सुंदर प्रस्तुति दी।
इस दौरान संस्था के अध्यक्ष डॉ. केशव पाण्डेय एवं सचिव दीपक तोमर ने वरिष्ठ साहित्यकार अशोक “स्नेही“ का शॉल, श्रीफल एवं पुष्पगुच्छ भेंट कर सम्मानित किया। सचिव श्री तोमर ने अंत में आभार व्यक्त किया।इस मौके पर अरविंद जैमिनी, राजेंद्र मुद्गल एवं सतीश श्रीवास्तव सहित अन्य गणमान्य जन उपस्थित रहे।