ब्रिटेन में इमिग्रेशन विरोधी प्रदर्शनों की एक नई लहर देखी जा रही है। राजधानी लंदन में शनिवार को हुए विशाल प्रदर्शन में 1,10,000 से अधिक लोगों ने हिस्सा लिया। “यूनाइट द किंगडम” नाम की यह रैली दक्षिणपंथी नेता टॉमी रॉबिन्सन के नेतृत्व में निकाली गई, जो जल्द ही हिंसा में बदल गई। कई पुलिसकर्मी घायल हुए और स्थिति तनावपूर्ण हो गई।
पिछले एक महीने में नोजली, लॉटन और केंट जैसे इलाकों में प्रवासी विरोधी घटनाएं बढ़ी हैं। प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि प्रवासी समुदाय सार्वजनिक संसाधनों पर दबाव डाल रहा है। लेकिन विश्लेषकों का मानना है कि चुनाव-पूर्व राजनीति और राष्ट्रवादी बयानबाजी से हालात ज्यादा भड़क रहे हैं।
भारतीय समुदाय पर असर
ब्रिटेन में 12 लाख से ज्यादा भारतीय रहते हैं, जिनमें डॉक्टर, इंजीनियर और बड़ी संख्या में छात्र शामिल हैं। स्वास्थ्य सेवा और तकनीक जैसे क्षेत्रों में भारतीय पेशेवर अहम भूमिका निभा रहे हैं। इसके बावजूद, बढ़ती दुश्मनी और नकारात्मक माहौल उनके लिए चिंता का कारण बन रहा है।
ऑस्ट्रेलिया में भी बढ़ रही नाराजगी
ब्रिटेन की तरह ही ऑस्ट्रेलिया में भी प्रवासियों को लेकर गुस्सा पनप रहा है। यहां भीड़भाड़, आवास की कमी और अंतरराष्ट्रीय छात्रों की बढ़ती संख्या को वजह बताया जा रहा है। इनमें बड़ी संख्या भारतीय छात्रों की है, जो ऑस्ट्रेलियाई शिक्षा अर्थव्यवस्था में हर साल 6 अरब डॉलर से अधिक का योगदान करते हैं।
लेकिन अब यही छात्र और प्रवासी समुदाय जनता के आक्रोश के केंद्र में आ गए हैं। जीवन-यापन की बढ़ती लागत ने इस असंतोष को और भड़का दिया है।
क्यों भड़क रहा है तनाव?
- जीवन-यापन की बढ़ती लागत
- चुनावों से पहले राष्ट्रवादी संदेशों का प्रसार
- प्रवासियों पर गलत सूचनाओं का असर
- संसाधनों पर दबाव का आरोप
भारत की चिंता और रणनीतिक रिश्ते
भारत इन घटनाक्रमों पर कड़ी नजर रख रहा है। ब्रिटेन में भारतीय पेशेवर NHS और तकनीकी क्षेत्र में बेहद अहम हैं, जबकि ऑस्ट्रेलिया की अर्थव्यवस्था में भारतीय छात्र बड़ी भूमिका निभाते हैं। ऐसे में अगर प्रवासी विरोधी भावनाएं और बढ़ती हैं तो इन देशों के साथ भारत के रणनीतिक संबंध भी प्रभावित हो सकते हैं।
निष्कर्ष
लंदन से मेलबर्न तक राजनीतिक माहौल बदल रहा है और प्रवासी समुदाय सीधा निशाने पर है। भारत के लिए यह सिर्फ कूटनीति का सवाल नहीं, बल्कि विदेशों में रह रहे लाखों भारतीयों की सुरक्षा और सम्मान से जुड़ा मुद्दा है। आने वाले समय में सबसे बड़ा सवाल यही होगा कि क्या राजनीति साझेदारियों पर भारी पड़ जाएगी।