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इतिहास की अमर नायिका “झांसी की दुर्गा“

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झलकारी बाई की जयंती पर विशेष
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की ऐसी अद्भुत और प्रेरणादायक नायिका थीं वीरांगना झलकारी बाई, जिन्होंने अपने अदम्य साहस, निष्ठा और बलिदान से इतिहास के पन्नों पर अमिट छाप छोड़ी। झलकारी बाई की जीवनगाथा आज भी हमें सिखाती है कि अपने देश और समाज के प्रति समर्पण ही सच्ची देशभक्ति है। आज जयंती पर करते हैं उनकी वीरता, संघर्ष और योगदान का पुण्य स्मरण।


— डॉ.केशव पाण्डेय
स्वतंत्रता संग्राम की अमर नायिका झलकारी बाई का जन्म 22 नवंबर 1830 को झांसी (उत्तर प्रदेश) के पास भोजला गांव में एक गरीब लेकिन साहसी किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम सदोवा सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। झलकारी बचपन से ही अत्यंत साहसी और निडर थीं। छोटी उम्र में ही उन्होंने घुड़सवारी, तलवारबाजी और युद्धकला में निपुणता हासिल कर ली थी। उनके जीवन में यह गुण उनके माता-पिता के प्रोत्साहन और ग्रामीण परिवेश के कारण विकसित हुआ।
झलकारी बाई ने अपने साहसिक स्वभाव से अपने गांव और आसपास के क्षेत्रों में विशेष पहचान बनाई। वह बचपन में ही डाकुओं और जंगली जानवरों से अपने गांव की रक्षा करने में सक्रिय भूमिका निभाती थीं। उनकी निर्भीकता और न्यायप्रियता के कारण लोग उन्हें “झांसी की दुर्गा“ कहकर पुकारते थे।
झलकारी बाई का विवाह नायक पूरन सिंह से हुआ, जो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की सेना में एक वीर सैनिक थे। उन्होंने अपने पति से तीरंदाजी, कुश्ती और निशानेबाजी भी सीखी।
विवाह के बाद झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मीबाई के संगठित सैन्य दल में शामिल होकर उनकी सेना को मजबूत करने में योगदान दिया। झलकारी बाई और रानी लक्ष्मीबाई के बीच गहरी समानता थी, जिससे अंग्रेजों को उन्हें पहचानने में कठिनाई होती थी। यही समानता उनके जीवन के सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में एक रणनीतिक हथियार बनी।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बहादुरी से लड़ाई लड़ी थी। एक सामान्य परिवार से ताल्लुक रखने वाली, झलकारी बाई केवल अपनी दृढ़ता और साहस से प्रेरित थीं और आगे चलकर आदरणीय योद्धा बन गईं। एक योद्धा के साथ ही रानी लक्ष्मीबाई की विश्वसनीय सलाहकार साबित हुईं।
महारानी लक्ष्मीबाई के पति राजा गंगाधर राव के निधन के बाद, अंग्रेजों को उनका उत्तराधिकारी स्वीकार्य नहीं था, परंतु अंग्रेजों के विरोध के बावजूद, रानी लक्ष्मीबाई ने शासन की बागडोर संभालने का फैसला किया। लक्ष्मीबाई ने निकट भविष्य में होने वाली लड़ाई के लिए तैयारियाँ शुरू कर दीं। 1857 में स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों का विद्रोह बढ़ गया और उत्तरी और मध्य भारत के बड़े हिस्सों में फैल गया। वे सैनिक रानी लक्ष्मीबाई का समर्थन करने के लिए एकत्र हुए। झलकारी बाई को महिला सेना की टुकड़ी का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी सौंपी गई।
1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भारतीय इतिहास का वह काल था, जब अंग्रेजों के खिलाफ पूरे देश में विद्रोह की लहर दौड़ गई थी। इस संग्राम में झांसी का किला अंग्रेजों के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया था। रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी कुशल नेतृत्व क्षमता से किले की रक्षा की। उस दौरान झलकारी बाई ने एक अनोखा और साहसिक निर्णय लिया।
1858 में जब जनरल सर ह्यू रोज़ के नेतृत्व में फिरंगियों की सेना ने झाँसी के दुर्ग पर हमला किया और चारों ओर से घेर लिया, तो झलकारी बाई और पूरन कोरी दोनों ने उसका कड़ा प्रतिरोध किया। झलकारी बाई ने जमकर लड़ाई लड़ी और रानी को अपने बच्चे के साथ महल छोड़ने का सुझाव दिया।
झलकारी बाई ने स्वयं रानी लक्ष्मीबाई का वेश धारण किया, सेना की कमान संभाली और अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी। उनकी सरूपता ने अंग्रेजों को भ्रमित किये रखा और उनकी यह चाल लंबे समय तक काम करती रही। झलकारी बाई की असली पहचान के बारे में अंग्रेज अनिश्चित थे और उनकी वजह से ही रानी लक्ष्मीबाई अपने बेटे के साथ अपने महल से भाग सकीं।
यह झलकारी बाई की निष्ठा और देशभक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण था। उन्होंने अपने जीवन को बलिदान कर देश और झांसी की रक्षा की। झलकारी बाई की यह कहानी बुंदेलखंड के लोगों की लोक स्मृति का एक हिस्सा है। आज तक, उनकी स्मृति लोगों के मन में जीवित है और उनके बहादुर करतब वहाँ की तोककथाओं में बार-बार उभर कर सामने आते हैं। उरा क्षेत्र के कई दलित समुदाय उन्हें भगवान के अवतार के रूप में देखते हैं और उनके सम्मान में हर साल झलकारी बाई जयंती भी मनाते हैं। इस प्रकार झलकारी बाई बुंदेलखंड की लोक स्मृति में “अमर शहीद“ बन गई हैं।
झलकारी बाई का योगदान केवल 1857 के स्वतंत्रता संग्राम तक सीमित नहीं है। उनका साहस और बलिदान भारतीय महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बना। उन्होंने दिखाया कि महिलाओं की भूमिका केवल परिवार तक सीमित नहीं हो सकती वे राष्ट्र निर्माण और रक्षा में भी अग्रणी भूमिका निभा सकती हैं।
उनका योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उस समय के समाज में महिलाओं की ताकत और नेतृत्व क्षमता को उजागर करता आज झलकारी बाई की जयंती पर हमें उनके बलिदान को याद करते हुए उनके विचारों और आदर्शों को अपनाने की प्रेरणा लेनी चाहिए। उनके जीवन ने यह सिखाया कि समाज में समानता, साहस और निष्ठा के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करना आवश्यक है।
उनका साहस, त्याग और देशभक्ति हमें यह सिखाते हैं कि स्वतंत्रता और स्वाभिमान की रक्षा के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार रहना चाहिए। उनकी जयंती हमें यह अवसर देती है कि हम उनके आदर्शों को आत्मसात करें और अपने समाज और देश के लिए सकारात्मक योगदान दें। वीरांगनाओं के बलिदान को स्मरण करना और उनकी गाथाओं को आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाना हमारी जिम्मेदारी है। यह हमारी संस्कृति और इतिहास को समृद्ध करने का एक माध्यम है, जिससे हम अपने राष्ट्र को और भी सशक्त बना सकते हैं।

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