पंडित दीनदयाल उपाध्याय जयंती पर विशेष : डॉ. केशव पाण्डेय
अंत्योदय दिवस, एकात्म मानववाद के प्रमुख प्रस्तावक पंडित दीनदयाल उपाध्याय को समर्पित दिन है। इस दिन उनकी जयंती होती है और उनके विचारों से समाज को जागरूक कराने के उद्देश्य से अंत्योदय दिवस मनाया जाता है। वे एक मानवतावादी, पत्रकार, दार्शनिक, अर्थशास्त्री और राजनीतिक कार्यकर्ता थे। उनकी जयंती पर, आइए डालते हैं उनके बारे में कुछ रोचक तथ्यों पर एक नजर
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25 सितंबर बुधवार यानी आज भारतीय राजनीति के पुरोधा पुरुष पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती है। दीनदयाल जी वर्ष 1953 से 1968 तक भारतीय जनसंघ से जुड़े रहे। इनकी पहचान गंभीर दार्शनिक, पत्रकार, गहन चिंतक होने के साथ-साथ समर्पित संगठनकर्ता और नेता के तौर पर होती है। भारतीय जनता पार्टी की स्थापना के समय से ही पंडित दीनदयाल उपाध्याय पार्टी के वैचारिक मार्गदर्शक और नैतिक प्रेरणा-स्रोत रहे हैं। इनके अंत्योदय के सिद्धांत पर आज भी भाजपा के घोषणा पत्र तक तैयार होते हैं।
25 सितंबर 1916 को मथुरा जिले के फराह कस्बे के नगला चंद्रभान गांव में पंडित भगवती प्रसाद उपाध्याय के घर में इनका जन्म हुआ था। बचपन में उनके घर आए ज्योतिषी ने दीनदयाल की जन्मकुंडली देखी और भविष्यवाणी करते हुए कहा कि, ये बालक आगे चलकर महान विद्वान और विचारक बनेगा। विलक्षण प्रतिभा का धनी होगा और इसकी गिनती देश के अग्रणी राजनेताओं में होगी, लेकिन ये विवाह के बंधन में कभी नहीं बंधेगा। ज्योतिष की कही हर बात सच साबित हुई… कहावत है कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं…ऐसा ही लोग दीनदयाल जी के बारे में अनुमान लगाने लगे थे।
बालक दीनदयाल ने अल्पायु में ही अपने माता-पिता को खो दिया था, जिसके चलते ननिहाल में उनका पालन-पोषण हुआ। बचपन से ही उनका दिमाग पढ़ाई-लिखाई में खूब चलता था। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने हाई स्कूल की शिक्षा राजस्थान के सीकर में प्राप्त की। मेधावी होने के कारण सीकर के तत्कालीन नरेश ने उन्हें एक स्वर्ण पदक, किताबों के लिए 250 रुपये और दस रुपये की मासिक छात्रवृत्ति से पुरस्कृत किया।
उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा पिलानी में विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। बीए की पढ़ाई के लिए कानपुर के सनातन धर्म कॉलेज में दाखिला ले लिया। यहां उनके कई मित्र बने। उन्हीं में से एक मित्र थे बलवंत महाशब्दे। 1937 में महाशब्दे के कहने पर वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सम्मिलित हो गए। बस यही से उनकी जिंदगी ने अहम मोड़ ले लिया।
1937 में बीए की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण करने के बाद एमए की पढ़ाई करने आगरा आ गए। आगरा में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सक्रिय हो गए। संघ की सेवा के दौरान उनका परिचय भारतरत्न नानाजी देशमुख और भाऊराव देवरस से हुआ। जिन्होंने दीनदयाल जी के भविष्य निर्माण में अपनी अहम भूमिका निभाई।
उसके बाद दीनदयाल बीटी का कोर्स करने के लिए प्रयागराज (इलाहाबाद) गए और यहां भी उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से नाता नहीं तोड़ा। प्रयागराज में उन्होंने संघ में अपनी सेवा जारी रखीं। कोर्स पूरा होते ही उन्होंने खुद को संघ में पूर्णकालिक रूप से समर्पित करने का फैसला किया। संघ ने वर्ष 1955 में उन्हें उत्तर प्रदेश का प्रान्त प्रचारक बनाने का निर्णय लिया। जल्दी ही उन्होंने संघ में सभी को प्रभावित किया। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आदर्श स्वयंसेवक बन गए, क्योंकि उनके भाषण व उनके विचार पूर्ण रूप से संघ की शुद्ध विचारधारा पर आधारित ही होते थे।
माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर से प्रेरणा लेकर 21 अक्टूबर 1951 को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई और जनसंघ के माध्यम से ही दीनदयाल ने भारतीय राजनीति में कदम रखा। 1952 में कानपुर में जनसंघ का प्रथम अधिवेशन हुआ। पंडित दीनदयाल उपाध्याय को पहले उत्तर प्रदेश शाखा का महासचिव बनाया गया और उसके बाद उन्हें अखिल भारतीय महासचिव के पद पर नियुक्त किया गया। उनकी कार्य कुशलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जनसंघ के कानपुर अधिवेशन में पारित हुए कुल 15 प्रस्तावों में से 7 प्रस्ताव पंडित दीनदयाल उपाध्याय के थे।
डॉ. मुखर्जी ने दीनदयाल के बारे में कहा था, ’अगर मुझे दो दीनदयाल मिल जाएं तो मैं भारतीय राजनीति का नक्शा बदलकर रख दूंगा।’ 1953 में श्यामा प्रसाद की रहस्यमय मृत्यु के बाद दीनदयाल जी ने जनसंघ को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ली। वर्ष 1967 तक वो भारतीय जनसंघ में महासचिव रहे और पार्टी को लगातार आगे बढ़ाने के मिशन में जुटे रहे।
दिसंबर 1967 में भारतीय जनसंघ का चौदहवां अधिवेशन कालीकट में हुआ और इसमें सर्वसम्मति से पंडित दीनदयाल उपाध्याय को पार्टी अध्यक्ष चुना गया, लेकिन वो मात्र 43 दिन ही जनसंघ के अध्यक्ष रह सके। क्योंकि 10 फरवरी 1968 को वो लखनऊ से पटना जाने के लिए रेलगाड़ी में बैठे और 11 फरवरी को सुबह पौने चार बजे रेलवे लाइन के किनारे उनका शव मिला।
कहा जाए तो आज भी भारतीय जनता पार्टी के कार्यों में दीनदयाल जी की सोच का असर दिखाई पड़ता है। वे भारत माता के ऐसे सपूत थे जिन्होंने अपने कार्यों और विचारों से लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया। पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने आजादी के बाद खुशहाल समृद्ध और विकसित भारत के निर्माण के लिए अंत्योदय का सपना देखा था, जिसके लिए वे जीवनभर संघर्ष करते रहे। उनके अंत्योदय के सिद्धांत का मतलब भारत के अंतिम व्यक्ति को समृद्ध करना ही था। उनका मानना था कि यदि अंतिम छोर के व्यक्ति का विकास होगा तभी समग्र समाज का विकास संभव है। दीनदयाल जी के “अंत्योदय“ के सिद्धांत के तहत आज अंत्योदय गरीबों और वंचितों के उत्थान के प्रति उनके समर्पण को दर्शाता है। क्योंकि उनका मतलब था समाज के सबसे निचले स्तर पर मौजूद व्यक्ति का उत्थान।
अंत्योदय का अर्थ है “अंतिम व्यक्ति का उदय“, अर्थात समाज के सबसे गरीब और पिछड़े व्यक्ति को समाज की मुख्यधारा में लाना है। क्योंकि 1960 और 1970 के दशक में, उन्होंने अपनी विचारधारा के माध्यम से गरीबों के सशक्तिकरण और आर्थिक सुधार पर जोर दिया। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने यह मान्यता दी कि जब तक समाज के अंतिम व्यक्ति का विकास नहीं होता, तब तक समाज का समग्र विकास संभव नहीं है। इस विचारधारा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के चलते उनके जन्मदिन को अंत्योदय दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसका प्रमुख उद्देश्य गरीबों और वंचितों के उत्थान और समाज के अंतिम व्यक्ति तक विकास की किरण पहुंचाना है, ताकि वे भी समाज के साथ प्रगति कर सकें। समाज में आर्थिक और सामाजिक असमानताओं को खत्म करने की दिशा में काम करने की प्रेरणा देता है। अंत्योदय दिवस के अवसर पर विभिन्न सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों का प्रचार किया जाता है, जो गरीबों और वंचित वर्गों के कल्याण के लिए चलाई जा रही हैं, जैसे कि प्रधानमंत्री अंत्योदय योजना, जनधन योजना, उज्ज्वला योजना आदि।
पत्रकार के रूप में भी करते थे देश सेवा- उन्होंने अनेकों पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। हिंदुत्व की विचाराधारा को प्रसारित करने के लिए मासिक राष्ट्रधर्म का प्रकाशन किया। साप्ताहिक पांचजन्य व दैनिक स्वदेश की शुरुआत भी की। उन्होंने चंद्रगुप्त मौर्य, शंकराचार्य की हिंदी में जीवनी लिखी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक हेडगेवार की जीवनी का मराठी से हिंदी में अनुवाद करने का श्रेय भी दीनदयाल को ही जाता है।
उनके कद का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सरकारों ने उन्हें अनेक सम्मान दिए। भारत सरकार ने 1978 में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया। 2017 में गुजरात के कांदला बंदरगाह का नाम बदलकर दीनदयाल उपाध्याय बंदरगाह कर दिया गया। उतर प्रदेश में 2018 में मुगलसराय जंक्शन का नाम बदलकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय रखा गया। 16 फरवरी 2020 को वाराणसी में पंडित दीनदयाल उपाध्याय मेमोरियल सेंटर खोला गया, जहां उनकी 63 फुट ऊंची प्रतिमा स्थापित की गई। एक स्टेशन उन्हीं के नाम पर बनाया गया है। यही नहीं, आज देश में उनके नाम पर कई सरकारी योजनाएं भी संचालित की जा रही हैं।
पंडित दीनदयाल जी का पूरा जीवन राष्ट्रसेवा व समर्पण का विराट प्रतीक है। जब भी मानवता के कल्याण की बात होगी, पंडित जी के एकात्म मानववाद दर्शन का सिद्धांत संपूर्ण मानवजाति को सदैव ध्रुव तारे की तरह मार्गदर्शित करता रहेगा। उनका मानना था कि भोजन से लेकर विचारों तक की आत्मनिर्भरता ही राष्ट्र को विश्व में उसका स्थान दिला सकती है। आज यही संकल्प आत्मनिर्भर भारत की मूल अवधारणा है। हम सबके प्रेरणास्त्रोत पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती पर उन्हें शत्-शत् नमन।