जातिगत जनगणना: क्या यह भारत की सामाजिक और राजनीतिक दिशा बदल सकती है?
देशभर में इन दिनों जातिगत जनगणना को लेकर बहस तेज़ हो गई है। जैसे ही इसकी घोषणा हुई, पहलगाम आतंकी हमले की सुर्खियों के बीच यह मुद्दा केंद्र में आ गया। सवाल यह उठता है कि आखिर जातिगत जनगणना की ज़रूरत क्यों महसूस हो रही है, और यह देश के सामाजिक व राजनीतिक ताने-बाने को किस तरह प्रभावित कर सकती है?
🔍 जनगणना क्या है?
भारत में जनगणना एक दशक में एक बार होने वाला राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण है, जिसकी शुरुआत 1872 में वायसराय लॉर्ड मेयो के समय में हुई थी। पहली पूर्ण जनगणना 1881 में हुई, और तब से अब तक यह प्रक्रिया 15 बार हो चुकी है। स्वतंत्र भारत में यह कार्य गृह मंत्रालय के अधीन रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त द्वारा किया जाता है। हालांकि, 2021 की जनगणना कोविड-19 महामारी के चलते टाल दी गई थी।
🧩 जातिगत जनगणना क्या है?
जातिगत जनगणना में नागरिकों की जातिगत पहचान से संबंधित आंकड़े इकट्ठा किए जाते हैं। यह डेटा न सिर्फ सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को बेहतर ढंग से समझने में मदद करता है, बल्कि यह राजनीतिक प्रतिनिधित्व, आरक्षण नीतियों और कल्याण योजनाओं के प्रभाव को भी उजागर करता है।
भारत की सामाजिक संरचना में जाति एक गहरी जड़ें जमाए ऐतिहासिक तत्व है। जातिगत जनगणना का उद्देश्य इस अदृश्य संरचना को डेटा के माध्यम से पारदर्शी बनाना है, जिससे नीतियों का निर्धारण अधिक न्यायपूर्ण और प्रभावी हो सके।
🌐 क्यों है अब ज़रूरत?
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आर्थिक व सामाजिक योजनाओं की प्रभावशीलता बढ़ाने के लिए
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वंचित वर्गों की सही पहचान और मदद के लिए
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राजनीतिक प्रतिनिधित्व में संतुलन लाने के लिए
जातिगत जनगणना अब केवल आंकड़ों का मामला नहीं है, यह भारत के भविष्य की सामाजिक दिशा तय करने का एक अहम उपकरण बन चुका है।