आधुनिक युग में महिलाएं सामाजिक बेड़ियों को तोड़कर और जाति-धर्म की दीवारों से बाहर निकल, भाषा के बंधन से मुक्त होकर राजनीतिक और सांस्कृतिक भेदभाव से परे एकजुट होकर अपनी शक्ति का अहसास करा रही हैं बावजूद इसके आज भी आधी आबादी कहीं न कहीं अपने वास्तविक अस्तित्व के लिए खुद से और समाज से लड़ रही है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर नारी की वास्तविक स्थिति से रू-ब-रू कराती खास रिपोर्ट।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष : गाँव से लेकर राष्ट्रपति भवन तक दिखती है नारी की शक्ति
डॉ. केशव पाण्डेय
—–8 मार्च यानी आज पूरी दुनिया में महिला दिवस मनाया जा रहा है। महिलाओं के हितों की बात की जाएगी उनकी आजादी का जश्न मनाया जाएगा….नारी शक्ति की महिमा को मंडित कर उनका गुणगान होगा लेकिन क्या वास्तव में यह उजली तस्वीर समाज में महिलाओं को पूर्ण आजादी का अहसास कराती है….? या फिर बनावटी बनकर रह जाती है।
तो सबसे जान लेते हैं अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का इतिहास- बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में समानाधिकार की यह लड़ाई आम महिलाओं ने शुरू की थी। प्राचीन ग्रीस में लीसिसट्राटा नाम की एक महिला ने फ्रेंच क्रांति के दौरान युद्ध समाप्ति की माँग को लेकर आन्दोलन का शंखनाद किया। इसके साथ ही समानाधिकार की यह लडाई शुरू हुई। फारसी महिलाओं के एक समूह ने महिलाओं पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए वरसेल्स में इस दिन मोर्चा निकाला। महिलाओं के हितों की रक्षा के लिए 28 फरवरी 1909 में सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका ने पहली बार महिला दिवस मनाया।
1910 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल द्वारा कोपनहेगन में महिला दिवस की स्थापना की। 1911 में ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विटज़रलैंड में लाखों महिलाओं ने रैली निकाली थी। मताधिकार, सरकारी कार्यकारिणी में जगह, नौकरी में भेदभाव को खत्म करने जैसी कई मुद्दों की माँग इस रैली में की गई। 1913-14 प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, रूसी महिलाओं द्वारा पहली बार शांति की स्थापना के लिए फरवरी माह के अंतिम रविवार को महिला दिवस मनाया गया। यूरोप भर में भी युद्ध के खिलाफ प्रदर्शन हुए। 1917 तक विश्व युद्ध में रूस के 2 लाख से ज्यादा सैनिक मारे गए, रूसी महिलाओं ने फिर रोटी और शांति के लिए इस दिन हड़ताल की। हालांकि राजनेता इसके खिलाफ थे, फिर भी महिलाओं ने एक नहीं सुनी और अपना आन्दोलन जारी रखा और परिणामस्वरूप रूस के जार को अपनी गद्दी छोड़नी पड़ी। सरकार को महिलाओं को वोट देने के अधिकार की घोषणा करनी पड़ी।
इस दिन को ख़ास बनाने की शुरुआत आज से 115 बरस पहले यानी 1908 में तब हुई, जब क़रीब पंद्रह हज़ार महिलाओं ने न्यूयॉर्क शहर में एक परेड निकाली। उनकी मांग थी कि महिलाओं के काम के घंटे कम हों। पगार अच्छी मिले और महिलाओं को वोट डालने का हक़ भी मिले।
एक साल बाद अमरीका की सोशलिस्ट पार्टी ने पहला राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का एलान किया। उसी दौरान क्लारा जेटकिन नाम की महिला के जहन में इसे अंतरराष्ट्रीय बनाने का ख़याल आया था।
क्लारा एक वामपंथी कार्यकर्ता थीं। वो महिलाओं के हक़ के लिए आवाज़ उठाती थीं। 1910 में डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगेन में कामकाजी महिलाओं के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में उन्होंने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का सुझाव दिया था।
उस सम्मेलन में 17 देशों से आई 100 महिलाएं शामिल थीं और वो एकमत से क्लारा के इस सुझाव पर सहमत हो गईं। पहला अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 1911 में ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विटज़रलैंड में मनाया गया। इसका शताब्दी समारोह 2011 में मनाया गया। तो, तकनीकी रूप से इस साल हम 112वां अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मना रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को औपचारिक मान्यता 1975 में उस वक़्त मिली, जब संयुक्त राष्ट्र ने भी ये जश्न मनाना शुरू कर दिया। संयुक्त राष्ट्र ने इसके लिए पहली थीम 1996 में चुनी थी, जिसका नाम ’गुज़रे हुए वक़्त का जश्न और भविष्य की योजना बनाना’ था।
अब बात करते हैं प्रदेश और देश में महिलाओं की आबादी की और फिर उनके हक की। देश में 23 राज्य ऐसे हैं जहां प्रति एक हजार पुरुषों पर महिलाओं की आबादी उनसे ज्यादा है। उत्तर प्रदेश में प्रति हजार पुरुष पर 1017, बिहार में 1090, झारखंड में 1050, छत्तीसगढ़ में 1015 जबकि इसके विपरीत दिल्ली में 970 महाराष्ट्र में 966 पंजाब में 938 और हरियाणा में सबसे कम 926 है।
राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2021 के अनुसार देश में 1000 पुरुषों पर 1020 महिलाएं हो गईं हैं। आजादी के बाद पहली बार यह रिकॉर्ड बना है।
भारत की जनगणन 2011 के अनुसार उस वक्त जनसंख्या 1,21,08 54,977 थी। जिसमें 58,64, 69,174 महिलाएं हैं। जबकि पिछले 12 साल में देश की जनसंख्या में खासा इजाफा हुआ है तो स्वाभाविक है कि आधी आबादी का भी वजूद बढ़ा है। हालांकि 2021 में देश की 16 वी जनगणना होनी थी लेकिन कोविड-19की वजह से नहीं हो सकी और इसे 2023 तक टाल दिया गया। नहीं तो वास्तविक तस्वीर आपके सामने होती।
जबकि मध्य प्रदेश में 52 प्रतिशत यानी 3.76 करोड़ पुरुष और 48 प्रतिशत मतलब 3.50 करोड़ महिलाएं थीं। 2021 में यह प्रतिशत बढ़कर अनुमानित 48.4 हो गया है।
आंकड़ों के बाद अब आते हैं असली मुद्दे पर तो हम पाते हैं कि गॉव की चौपाल से लेकर राजधानी भोपाल तक और नगर सरकार से लेकर राष्ट्रीय राजधानी के राष्ट्रपति भवन तक नारी शक्ति की जय..जयकार हो रही है। आधी आबादी और बात बराबरी की करने के बावजूद आधी आबादी को प्रतिनिधितव आधा-अधूरा ही मिल रहा है। आबादी के लिहाज उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा राज्य है लेकिन महिलाओं को चुनने में पीछे है। जबकि पहली महिला मुख्यमंत्री इसी राज्य से मिलीं। देश की पहली महिला प्रधानमंत्री भी इसी राज्य से प्रतिनिधित्व करती थीं।
बेशक आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस, समाज में, सियासत में, और आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की तरक़्क़ी का जश्न मनाने का दिन बन चुका है। जबकि इसके पीछे की सियासत की जो जड़ें हैं, उनका मतलब ये है कि हड़तालें और विरोध प्रदर्शन आयोजित करके औरतों और मर्दों के बीच उस असमानता के प्रति जागरूकता फैलाना है, जो आज भी बनी हुई है।
यही वजह है कि 2023 के अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के लिए संयुक्त राष्ट्र की थीम ’डिजिटऑलः लैंगिक समानता के लिए आविष्कार एवं तकनीक’ रखी गई है। इस थीम का लक्ष्य तकनीक और ऑनलाइन शिक्षा के क्षेत्र में लड़कियों और महिलाओं द्वारा दिए जा रहे योगदान को स्वीकार करना और उसका जश्न मनाना है। इस वर्ष महिलाओं और लड़कियों की असमानता पर डिजिटल लैंगिक फ़र्क़ के असर की पड़ताल भी की जाएगी। क्योंकि, संयुक्त राष्ट्र का आकलन है कि अगर ऑनलाइन दुनिया तक महिलाओं की पहुंच की कमी को दूर नहीं किया गया, तो इससे कम और मध्यम आमदनी वाले देशों के सकल घरेलू उत्पाद को 1.5 ख़रब डॉलर का नुक़सान होगा। हालांकि इस थीम के अलावा देश और दुनिया में दूसरे अनेक मुद्दे भी चर्चा में हैं। इनमें महिलाओं के लिए सकारात्मक बदलाव लाना प्रमुख है। इसके साथ ही “समानता को अपनाओ“ थीम को भी चुना गया है। ताकि अनेक संगठनों और कार्यक्रमों के ज़रिए महिलाओं की घिसी-पिटी लैंगिक भूमिका को चुनौती देने, भेदभाव के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने, पक्षपात के प्रति ध्यान खींचने और महिलाओं को हर क्षेत्र में शामिल किए जाने को लेकर आवाज़ उठाई जा सके।
समाज व राष्ट्र को इस बात को स्वीकार करना होगा कि आज के दौर में महिलाओं का योगदान पुरुषों के बराबर है बल्कि आज पुरुषों से आगे निकलकर हर क्षेत्र में कामयाबी के झंडे गाड़ रही हैं।
शिक्षा हो या स्वास्थ्य या अन्य ऐसे ही कई क्षेत्रों में जिसकी कल्पना पहले की सामाजिक स्थिति में करना नामुमकिन सा था, उन सभी क्षेत्रों में महिलाओं का विशेष योगदान रहा है। लेकिन अभी भी समाज में कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हे महिलायें सिर्फ घर की चार दीवारी में ही अच्छी लगती हैं। अभी भी भारत ही नहीं बल्कि विकासशील देशों में महिलाओं की स्थिति में ज्यादा कोई सुधार नहीं आया है।
समाज में फैली कुरूतियों का सबसे अधिक प्रभाव यदि किसी पर पड़ा है तो वह महिलाएं ही हैं। सभी देशों में महिलाओं की स्थिति विचार करने योग्य है। 21 वी शताब्दी में भी महिलाएं अपने अधिकारों से वंचित हैं। महिलाओं द्वारा अपने अधिकारों के लिए कई प्रयास कई सदियों से किये जा रहे हैं और आज भी वे अपने मूलभूत अधिकारों के लिए लड़ रही हैं। भारत एक ऐसा देश हैं जहाँ शुरू से ही पुरुष का वर्चस्व रहा है यानि यह समाज पितृसत्ता अथवा पुरुष प्रधान रहा है और अभी भी यही स्थिति है। महिलाओं के वजूद को दरकिनार पहले से ही किया जाता रहा है। उनको सदैव ही अनदेखा किया जाता रहा है, चाहे वह कोई भी क्षेत्र हो उन्हें सिर्फ और सिर्फ घर की चार दीवारी तक सीमित रखने का काम किया गया। यदि आज उनकी जिंदगी बेहतर होती तो फिर हमें महिला दिवस मनाने की जरूरत ही नहीं होती।
हर साल इस दिवस का जश्न मनाया जाता है। बड़ी-बड़ी बातें होती है वादे किए जाते हैं और फिर भूल जाते हैं। सच्चाई तो यही है अन्यथा महिलाओं की सुरक्षा और अधिकारों में खास परिवर्तन देखने को मिलता। यदि संकुचित सोच की बेड़ियों से जकड़ा हमारा पुरुष प्रधान समाज सकारात्मक सोच के साथ महिलाओं के अधिकारों और उनकी बराबरी की बात कर उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करे तो वो दिन दूर नहीं जब आधी आबादी कही जाने वाली नारी एक नये समाज की सुंदर सोच को साकार कर अपनी नारी शक्ति का वास्तविक अहसास करा सकती है। क्योंकि गुजरे वक्त की अबला अब आधुनिक युग की सबला है। इसलिए नारी को सम्मान दें और उसका मान बढ़ाएं। क्योंकि नारी के प्रति दिया गया आपका सम्मान व आदर इस बात का प्रतीक है कि आप कितने सभ्य समाज के हिस्सा हो। अपने प्रति सम्मान की उम्मीद करना हर नारी की अपेक्षा नहीं उनका अधिकार है।…… और अंत में बस इतना ही।
नारी ने ही संसार रचाया, नारी ने सृष्टि को चलाया।
उसका यूं तिरस्कार न करो, देह जलाकर पुरस्कार न दो।