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समाज व राष्ट्र की जीवंत प्रेरणा हैं राजमाता विजयराजे सिंधिया

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“कर्मण्येवाधिकारस्ते माफलेषु कादचन“ – गीता के इस शाश्वत आर्ष वाक्य को जीवन में आत्मसात करने वाली ममतामयी माँ राजमाता विजयराजे सिंधिया ने जीवन पर्यन्त सिंद्धातों के संघर्ष में रहकर त्याग को स्वीकार किया और समाज, देश व मानवीय मूल्यों के लिए अतुल्यनीय योगदान प्रदान किया। त्याग, तपस्या और परोपकार की साक्षात प्रतिमूर्ति कही जाने वाली राजमाता विजयराजे सिंधिया की आज 22वीं पुण्य तिथि पर करते हैं उनका पुण्य स्मरण।
22वीं पुण्यतिथि पर विशेष : डॉ. केशव पाण्डेय

सागर के राणा परिवार में 12 अक्टूबर 1919 को ठाकुर महेंद्र सिंह एव चूड़ा देवेश्वरी की बेटी के रूप में जन्म लेने वाली लेखा देवेश्वरी ग्वालियर के सिंधिया राजघराने में विजयराजे सिंधिया के रूप में महारानी बनीं। देखते ही देखते डिप्टी कलेक्टर की बेटी लेखा देवी से महारानी और फिर राजमाता बन गईं। राजमाता की आत्मा की ज्योति 25 जनवरी 2001 को परम तत्व में विलीन हो गई है लेकिन 82 वर्ष के सुदीर्घ जीवन में उन्होंने अपने जीवनपथ पर जो पदचिंह छोड़े हैं वे अमिट से हैं। असंख्य जनमानस के मन-मस्तिष्क पर अपनी जो छाप बनाई हैं वे सदैव अविस्मरणीय रहेंगी। इसलिए यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि राजमाता जी अमर हैं। बेशक भौतिक रूप से सशरीर वे हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके सुकृत और सुविचारों की सुरभि सदैव बनी रहेगी। उनकी 22वीं पुण्य तिथि पर उनके अनुकरणीय कृतित्व और व्यकित्व के साथ पूरा राष्ट्र उन्हें याद कर रहा है क्योंकि वे सदैव समाज व राष्ट्र के लिए जीवंत प्रेरणा रहीं हैं।
उनका जीवन ही ऐसा था जो जीते-जी प्रेरणा बन गया गया था…. पिछली शताब्दी में भारत को दिशा देने वाले कुछ एक व्यक्तित्वों में राजमाता भी शामिल थीं। राजमाता केवल वात्सल्यमूर्ति ही नहीं थीं, वो एक निर्णायक नेता थीं और सक्षम कुशल प्रशासक। स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर आजादी के इतने दशकों तक, भारतीय राजनीति के हर अहम पड़ाव की साक्षी रहीं। आजादी पूर्व विदेशी वस्त्रों की होली जलाने से लेकर आपातकाल और राम मंदिर आंदोलन तक, उनके अनुभवों का व्यापक आधार है।


उन्होंने जीवन पर्यन्त सिंद्धातों के संघर्ष में रहकर त्याग को स्वीकार किया। उस कठोर साधना को जहां निरंतर संघर्ष का प्रवाह रहा। वे चाहती तो सिंद्धातों से समझौता कर राज नेतृत्व कर सकती थीं लेकिन उन्होंने सम्मान और गौरव से कोई समझौता नहीं किया। अभिमान नहीं सम्मान, ये राजनीति का मूल मंत्र उन्होंने जी करके दिखाया है।
उनका जीवन तो पावन सेवा और त्याग का उदाहरण रहा। इंसान की परख पद एवं श्री वैभव से नहीं अपितु उनके कार्यों से ही होती है इसकी जाज्वलयमान मिसाल रहीं राजमाता। उन्होंने कर्मयोग से सदैव प्रभावित किया। जहां एक ही आधार बनता है “कर्म करो फल की चिंता मत करो“ यही कारण है कि राजमाता का समग्र जीवन त्याग, साधना एवं आत्म विश्वास का प्रमाण रहा।
कोई भी साधारण व्यक्ति, जिनके भीतर योग्यता है, प्रतिभा है, देश सेवा की भावना है वो इस लोकतंत्र में सत्ता को भी सेवा का माध्यम बना सकता है। लेकिन कोई सोच भी नहीं सकता कि जिसके पास राजसत्ता थी, अकूत संपत्ति थी, सामर्थ्य था, बावजूद इसके उन सबसे बढ़कर जो राजमाता की अमानत थी, वो थी उनके संस्कार, सेवा और अपार स्नेह की सरिता।
एक समृद्ध राज्य की महारानी और राजमाता के तौर पर प्रभु ने उन्हें अथाह ऐश्वर्य के साथ सुख और वैभव दिया था। लेकिन नियती को कुछ और मंजूर था। उन्होंने अपने निजी जीवन में अनेक आघातों को झेला। युवा पुत्री से विछोह, सम्मानित राजपरिवार से होने के बावजूद भी जेल की यातनाएं भोगनी पड़़ीं। लेकिन जीवन में आए तमाम कष्टों से वे अपने कर्तव्य पथ से विचलित नहीं हुईं।
समृद्ध राजघराने की मुखिया के रूप में उनके पास भव्य महल और हजारों कर्मचारी थे सभी सुविधाएं थीं। बावजूद इसके उन्होंने सामान्य मानवी और गाँव-गरीब के साथ जुड़कर जीवन जिया, उनके लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।
उन्होंने साबित किया कि जनप्रतिनिधि के लिए राजसत्ता नहीं, जनसेवा सबसे महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि महारानी होने पर भी उन्होंने लोकतंत्र की रक्षा के लिए संघर्ष किया और जीवन का महत्वपूर्ण कालखंड जेल में बिताया।
आपातकाल के दौरान उन्होंने जो यातनाएं सहीं, उसके साक्षी हम में से बहुत से लोग रहे हैं। आपातकाल में उन्होंने तिहाड़ जेल से अपनी बेटियों को चिट्ठी लिखी थी। संभवतः ऊषा राजे जी, वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे जी को वो चिट्ठी याद होगी।
राजमाता ने जो लिखा था उसमें बहुत बड़ी सीख थी। उन्होंने लिखा था- “अपनी भावी पीढ़ियों को सीना तानकर जीने की प्रेरणा मिले, इस उद्देश्य से हमें आज की विपदा को धैर्य के साथ झेलना चाहिए।”
देश की भावी पीढ़ी के लिए उन्होंने अपना हर सुख त्याग दिया और राष्ट्र के भविष्य के लिए अपना वर्तमान समर्पित कर दिया। उन्होंने पद और प्रतिष्ठा के लिए न जीवन जीया, न कभी उन्होंने राजनीति का रास्ता चुना।
उनके राजनीतिक सफर को देखें तो पाते हैं कि राजमहल की महारानी ने कांग्रेस के जरिए राजनीति के पथ पर बढ़ीं। 1957 में पहली बार सदन में पहुंची। स्वतंत्र पार्टी से होते हुए भारतीय जनता पार्टी में अपनी राजनीति को विराम दिया। जनसंघ की अखिल भारतीय नेता के रूप में उनका विकास हुआ। वे भाजपा की संस्थापकों में से एक रहीं। देश भर की समस्याओं के विषय में वे जानकार थीं। उन्होंने जीवन काल में शिक्षा, स्वास्थ्य एवं समाज सेवा से जुड़े अनेक संस्थानों की स्थापना कराई।
राजनीति का जीवंत इतिहास बन चुके पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था-कि भारत के सार्वजनिक जीवन में राजमाता का स्थान अतुलनीय है। ध्येय देवता के प्रति अविचल निष्ठा, कर्तव्य के पथ पर अविराम यात्रा, अपने विश्वासों के लिये राजमहल के सुखोपभोग को तिलांजलि देकर कारागार की यातना को सहर्ष स्वीकार करने की उनकी सिद्धता, समाज के हित के लिए परिवार के मोह और ममता से मुंह मोड़ लेने का उनका मनोधैर्य, नयी पीढ़ी के लिए प्रेरणादायक ही नहीं, भावी संतति के लिए अनुकरणीय भी सिद्ध होगा। उनका अखंड कर्मयोग और सब को मातृ सुलभ स्नेह के आंचल में समेट कर साथ ले चलने का उनका स्वभाव और संस्कार विरोधियों को भी प्रशंसक बना देता था ।
केद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया भी सदैव अपनी अम्मा महाराज का स्मरण कर भावुक हो जाते हैं। वे हमेशा कहते हैं कि राजमाता “वसुधैव कुटुम्बकम् की जीवंत प्रतिमूर्ति थीं“। अपने जीवन में उन्होंने जनसेवा को सर्वोपरि माना और उसके लिए समर्पित रहीं। संत और वि़द्वानों का उन्होंने सदैव सम्मान किया। राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत उनकी कार्यशैली स्मरणीय है। उनका जीवन अनुकरणीय है।
राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री और उनकी बेटी वसुंधरा राजे एवं प्रदेश सरकार की मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया की भी श्रद्धेय अम्मा महाराज को याद करते आंँखे नम हो जाती हैं। वे हमेशा यही कहती हैं कि उन्होंने हमें माँं की ममता और पिता का प्यार दोनों प्रदान किए। वे आत्मीय सखा की तरह दुःख-सुख में सहभागी रहीं। उन्होंने अपने परिवार का इतना विस्तार कर लिया था कि निजी परिवार तो उसका एक बहुत छोटा सा हिस्सा ही प्रतीत होता था।
हिंदी की सुप्रसिद्ध लेखिका मृदुला सिंह ने राजमाता की आत्मकथा “राजपथ से लोकपथ पर“ को लिपिबद्ध करते हुए लिखा है कि- कैसे सामान्य परिवार में जन्मी कन्या राजरानी बनी और फिर राजपथ पर चलते-चलते कैसे लोकपथ पर जा पहुंची? ….. और वहां से कैसे लोकमाता और जनमाता बन गई?
पुस्तक में राजमाता ने लिखा है – “एक दिन ये शरीर यहीं रह जाएगा, आत्मा जहॉं से आई है वहीं चली जाएगी…शून्य से शून्य में। स्मृतियां रह जाएंगी। अपनी इन स्मृतियों को मैं उनके लिए छोड़ जाऊंगी जिनसे मेरा सरोकार रहा है, जिनकी मैं सरोकार रही हूं।‘’ आज राजमाता जी जहां भी हैं, हमें देख रही हैं, हमें आशीर्वाद दे रही हैं। हम सभी लोग जिनका उनसे सरोकार रहा है, जिनकी वो सरोकार रही हैं। क्योंकि हर देशवासी उनका परिवार ही था। राजमाता जी कहती भी थीं- “मैं एक पुत्र की नहीं, मैं तो सहस्रों पुत्रों की मॉं हूं, उनके प्रेम में आकंठ डूबी रहती हूं।‘’
आध्यात्मिकता के साथ उनका जुड़ाव था। साधना, उपासना, भक्ति उनके अन्तर्मन में रची बसी थी। ईश्वर के प्रति भक्ति की शक्ति ने ही उन्हें ममता की प्रतिमूर्ति बनाया। वे राजमाता से बढ़कर जनमाता थीं। जिन्होंने कोटि-कोटि जन के हृदय पर राज किया।
राजमाता की जीवन यात्रा को, उनके जीवन संदेश को आज की पीढ़ी भी जाने, उनसे प्रेरणा ले, उनसे सीखे। इसलिए उनके और उनके अनुभवों के बारे में बार-बार बात करना आवश्यक है। पिछले वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी ‘मन की बात’ में बहुत विस्तार से उनके स्नेह पर चर्चा की थी। इसकी वजह है कि राजमहलों में रहने के बावजूद उनके मन में कभी अंहकार का भाव नहीं दिखा। वे आमजन से सहजता, सरलता, आत्मीयता के साथ मिलती थीं। उनकी अभिव्यक्ति इंसान के दिल को जीतने वाली होती थी। उनका मातृवत सुलभ व्यवहार उन्हें श्रद्धा और सम्मान का हकदार बनाता है। राजनीति के परिदृश्य में सार्वजनिक जीवन की सर्वाधिक समाहत महिला थीं। उनके समान उॅचाई, गहराई, और उनकी विशालता किसी एक इंसान में उपलब्ध होना संभव नहीं है। ऐसी राजमाता का हमसे दूर होना हमारे लिए दुःखद है। यदि हमने उन्हें आदर्श मानकर उनके सदगुणों को अपने जीवन में आत्मसात कर लिया तो सही मायने में उनके प्रति हमारी सच्ची आदरांजलि होगी। उनको हमारा शत्-शत् प्रणाम।
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(लेखक सांध्य समाचार के प्रधान संपादक हैं)

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