अतीत की सरकारें भी अपनी पसंद के लोगों को तरजीह देती थीं। ऐसा पहली बार हुआ, जब प्रतिष्ठित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी जैसे संस्थानों में दखल दिया गया है। असल चीज यह है कि सारा दोष सरकार या नेताओं पर डालकर बरी नहीं हुआ जा सकता।विस्तार
पिछले महीने एक सम्मेलन में मेरी मुलाकात प्रतिष्ठित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के एक निदेशक से हुई। वह खुद एक शानदार वैज्ञानिक और उत्कृष्ट प्रशासक हैं। उन्होंने मुझे बताया कि अभी कम से कम आठ आईआईटी में कोई निदेशक नहीं है। इन सारे मामलों में पिछले निदेशकों का कार्यकाल खत्म हो चुका है। एक चयन समिति का गठन किया गया था, लेकिन किसी भी मामले में अनुशंसित उम्मीदवार के नाम को भारत सरकार द्वारा अनुमोदित नहीं किया गया।
ऐसा इसलिए था, क्योंकि आठ चुने गए उम्मीदवारों की व्यक्तिगत और बौद्धिक दिशा को ‘नागपुर’ द्वारा आंका जाना था, ताकि उनके नाम मंजूर किए जा सकें। (हालांकि राष्ट्रपति ने 20 सितंबर को आठ आईआईटी में निदेशकों की नियुक्ति को मंजूरी दी है।) आईआईटी के निदेशक ने ‘नागपुर’ शब्द का जिक्र व्यंग्यपूर्ण ढंग से किया था। हालांकि उन्होंने जो कहा, उसमें दुख झलक रहा था।
सार्वजनिक विश्वविद्यालय प्रणाली के अपने वृहत अनुभव से वह वैज्ञानिक जानते हैं कि उच्च शिक्षा में राजनीतिक हस्तक्षेप की शुरुआत मोदी सरकार ने शुरू नहीं की है। अतीत की सरकारें भी अपनी पसंद के लोगों को तरजीह देती थीं और शिक्षा मंत्री अक्सर चयन समिति को निर्देश देते थे कि वह अमुक व्यक्ति को किसी केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में या किसी वरिष्ठ अधिकारी का विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के प्रमुख के रूप में चयन करे।
ऐसा पहली बार हुआ, जब प्रतिष्ठित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट जैसे संस्थानों में दखल दी गई। आईआईटी तथा आईआईएम के निदेशकों के चयन के लिए वैज्ञानिक उत्कृष्टता और प्रशासनिक क्षमता एकमात्र मानदंड नहीं रह गए हैं, इसके बजाय संघ परिवार के साथ वैचारिक संतुलन भी देखा जा रहा है। मैंने 2015 के अपने एक लेख में लिखा था कि मोदी सरकार देश की सबसे ‘बौद्धिक विरोधी’ सरकार है।
सत्ता में आने के कुछ महीने बाद दिए गए भाजपा के अग्रणी राजनेताओं (प्रधानमंत्री सहित) के भाषण, उसके बाद के सात सालों के घटनाक्रम इस निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं। हमारे आईआईटी और आईआईएम के साथ जो कुछ हो रहा है, वह उस व्यापक प्रवृत्ति का लक्षण है, जिसके तहत सरकार व्यवस्थित रूप से नियंत्रण की कोशिश करना चाहती है कि भारतीय विश्वविद्यालयों में छात्र और प्राध्यापक किस तरह से काम करें और सोचें।
हाल के वर्षों में भारतीय राज्य के साथ-साथ राजनीतिक कार्यकर्ताओं द्वारा बौद्धिक स्वतंत्रता पर किए गए हमलों का दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग के कुछ शिक्षकों और छात्रों ने दस्तावेजीकरण किया है। इन अध्येताओं ने अपने निष्कर्षों को छह श्रेणियों में सारणीबद्ध किया है, जैसा कि नीचे बताया गया है : तालिका एक में उन पुस्तकों के ब्योरे हैं, जिन्हें विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से या यहां तक कि सार्वजनिक वितरण से हटा दिया गया है, क्योंकि कथित तौर पर हठधर्मिता और एक विशेष धार्मिक समूह के पूर्वाग्रहों का अपमान किया गया है।